6
सुमन के घर के सामने भोली नाम की एक वेश्या का मकान था। भोली नित नए श्रृंगार करके अपने कोठे के छज्जे पर बैठती। पहर रात तक उसके कमरे से मधुर गान की ध्वनि आया करती। कभी-कभी वह फिटन पर हवा खाने जाया करती। सुमन उसे घृणा की दृष्टि से देखती थी।
सुमन ने सुन रखा था कि वेश्याएं अत्यंत दुश्चरित्र और कुलटा होती हैं। वह अपने कौशल से नवयुवकों को अपने मायाजाल में फंसा लिया करती हैं। कोई भलामानुस उनसे बातचीत नहीं करता, केवल शोहदे रात को छिपकर उनके यहां जाया करते हैं। भोली ने कई बार उसे चिक की आड़ में खड़े देखकर इशारे से बुलाया था, पर सुमन उससे बोलने में अपना अपमान समझती। वह अपने को उससे बहुत श्रेष्ठ समझती थी। मैं दरिद्र सही, दीन सही, पर अपनी मर्यादा पर दृढ़ हूं। किसी भलेमानुष के घर में मेरी रोक तो नहीं, कोई मुझे नीच तो नहीं समझता। वह कितना ही भोग-विलास करे, पर उसका कहीं आदर तो नहीं होता। बस, अपने कोठे पर बैठी अपनी निर्लज्जता और अधर्म का फल भोगा करे। लेकिन सुमन को शीघ्र ही मालूम हुआ कि मैं इसे जितना नीच समझती हूं, उससे वह कहीं ऊंची है।
आषाढ़ के दिन थे। गरमी के मारे सुमन का दम फूल रहा था। संध्या को उससे किसी तरह न रहा गया। उसने चिक उठा दी और द्वार पर बैठी पंखा झल रही थी। देखती क्या है कि भोलीबाई के दरवाजे पर किसी उत्सव की तैयारियां हो रही हैं। भिश्ती पानी का छिड़काव कर रहे थे। आंगन में एक शामियाना ताना जा रहा था। उसे सजाने के लिए बहुत-से फूल-पत्ते रखे हुए थे। शीशे के सामान ठेलों पर लदे चले आते थे। फर्श बिछाया जा रहा था। बीसों आदमी इधर-से-उधर दौड़ते फिरते थे, इतने में भोली की निगाह उस घर पर गई। सुमन के समीप आकर बोली– आज मेरे यहां मौलूद है। देखना चाहो तो परदा करा दूं?
सुमन ने बेपरवाही से कहा– मैं यहीं बैठे-बैठे देख लूंगी।
भोली– देख तो लोगी, पर सुन न सकोगी। हर्ज क्या है, ऊपर परदा करा दूं?
सुमन– मुझे सुनने की उतनी इच्छा नहीं है।
भोली ने उसकी ओर एक करुणासूचक दृष्टि से देखा और मन में कहा, यह गंवारिन अपने मन में न जाने क्या समझे बैठी है। अच्छा, आज तू देख ले कि मैं कौन हूं? वह बिना कुछ कहे चली गई।
रात हो रही थी। सुमन को चूल्हे के सामने जाने का जी न चाहता था। बदन में यों ही आग लगी हुई है। आंच कैसे सही जाएगी, पर सोच-विचारकर उठी। चूल्हा जलाया, खिचड़ी डाली और फिर आकर वहां तमाशा देखने लगी। आठ बजते-बजते शामियाना गैस के प्रकाश से जगमगा उठा। फूल-पत्तों की सजावट उसकी शोभा को और भी बढ़ा रही थी। चारों ओर से दर्शक आने लगे। कोई बाइसिकिल पर आता था, कोई टमटम पर, कोई पैदल। थोड़ी देर में दो-तीन फिटनें भी आ पहुंचीं। और उनमें से कई बाबू लोग उतर पड़े। एक घंटे में सारा आंगन भर गया। कई सौ मनुष्यों का जमाव हो गया। फिर मौलाना साहब की सवारी आई। उनके चेहरे से प्रतिभा झलक रही थी। वह सजे हुए सिंहासन पर मसनद लगाकर बैठ गए और मौलूद होने लगा। कई आदमी मेहमानों का स्वागत-सत्कार कर रहे थे। कोई गुलाब छिड़क रहा था, कोई खसदान पेश करता था। सभ्य पुरुषों का ऐसा समूह सुमन ने कभी न देखा था।
नौ बजे गजाधरप्रसाद आए। सुमन ने उन्हें भोजन कराया। भोजन करके गजाधर भी जाकर उसी मंडली में बैठे। सुमन को तो खाने की भी सुध न रही। बारह बजे रात तक वह वहीं बैठी रही– यहां तक कि मौलूद समाप्त हो गया। फिर मिठाई बंटी और बारह बजे सभा विसर्जित हुई। गजाधर घर में आए तो सुमन ने कहा– यह सब कौन लोग बैठे हुए थे?
गजाधर– मैं सबको पहचानता थोड़े ही हूं। पर भले-बुरे सभी थे। शहर के कई रईस भी थे।
सुमन– क्या यह लोग वेश्या के घर आने में अपना अपमान नहीं समझते?
गजाधर– अपमान समझते तो आते ही क्यों?
सुमन– तुम्हें तो वहां जाते हुए संकोच हुआ होगा?
गजाधर– जब इतने भलेमानुष बैठे हुए थे, तो मुझे क्यों संकोच होने लगा। वह सेठजी भी आए हुए थे, जिनके यहां मैं शाम को काम करने जाया करता हूं।
सुमन ने विचारपूर्ण भाव से कहा– मैं समझती थी कि वेश्याओं को लोग बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते हैं।
गजाधर– हां, ऐसे मनुष्य भी हैं, गिने-गिनाए। पर अंग्रेजी शिक्षा ने लोगों को उदार बना दिया है। वेश्याओं का अब उतना तिरस्कार नहीं किया जाता। फिर भोलीबाई का शहर में बड़ा मान है।
आकाश में बादल छा रहे थे। हवा बंद थी। एक पत्ती भी न हिलती थी। गजाधरप्रसाद दिन-भर के थके हुए थे। चारपाई पर जाते ही निद्रा में निमग्न हो गए, पर सुमन को बहुत देर तक नींद न आई।
दूसरे दिन संध्या को जब फिर चिक उठाकर बैठी, तो उसने भोली को छज्जे पर बैठे देखा। उसने बरामदे में निकलकर भोली से कहा– रात तो आपके यहां बड़ी धूम थी।
भोली समझ गई कि मेरी जीत हुई। मुस्कुराकर बोली– तुम्हारे लिए शीरीनी भेज दूं? हलवाई की बनाई हुई है। ब्राह्मण लाया है।
सुमन ने संकोच से कहा– भिजवा देना।